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स꣡ त्वं न꣢꣯श्चित्र वज्रहस्त धृष्णु꣣या꣢ म꣣ह꣡ स्त꣢वा꣣नो꣡ अ꣢द्रिवः । गा꣡मश्व꣢꣯ꣳ र꣣꣬थ्य꣢꣯मिन्द्र꣣ सं꣡ कि꣢र स꣣त्रा꣢꣫ वाजं꣣ न꣢ जि꣣ग्यु꣡षे꣢ ॥८१०॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

स त्वं नश्चित्र वज्रहस्त धृष्णुया मह स्तवानो अद्रिवः । गामश्वꣳ रथ्यमिन्द्र सं किर सत्रा वाजं न जिग्युषे ॥८१०॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सः꣢ । त्वम् । नः꣣ । चित्र । वज्रहस्त । वज्र । हस्त । धृष्णुया꣢ । म꣣हः꣢ । स्त꣣वानः꣢ । अ꣣द्रिवः । अ । द्रिवः । गा꣢म् । अ꣡श्व꣢꣯म् । र꣣थ्य꣢म् । इ꣣न्द्र । स꣢म् । कि꣣र । सत्रा꣢ । वा꣡ज꣢꣯म् । न । जि꣣ग्यु꣡षे꣢ ॥८१०॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 810 | (कौथोम) 2 » 1 » 12 » 2 | (रानायाणीय) 3 » 4 » 1 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में पुनः परमात्मा और जीवात्मा को सम्बोधन है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (चित्र) अद्भुत गुण, कर्म, स्वभाववाले, (वज्रहस्त) दण्डसामर्थ्ययुक्त अथवा शस्त्रास्त्र हाथ में धारण करनेवाले, (अद्रिवः) शत्रुओं से विदारण न किये जा सकनेवाले (इन्द्र) परमैश्वर्यवान् परमात्मन् वा जीवात्मन् ! (स्तवानः) स्तुति या गुण-वर्णन किया जाता हुआ, (धृष्णुया) धर्षक बल से (महः) महान् (सः) वह प्रसिद्ध (त्वम्) तू (नः) हमें (रथ्यम्) शरीर-रथ के वाहक (गाम्) प्राण-बल को तथा (अश्वम्) इन्द्रिय-बल को (संकिर) प्रदान कर, (न) जैसे (जिग्युषे) संग्राम को जीत लेनेवाले योद्धाजन को (सत्रा) सदा (वाजम्) अन्न, धन आदि का पुरस्कार राजा आदि प्रदान करते हैं ॥२॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है ॥२॥

भावार्थभाषाः -

आध्यात्मिक विजय के लिए और बाह्य विजय के लिए भी आत्मोद्बोधन के साथ परमात्मा की भी सहायता अपेक्षित होती है ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनः परमात्मा जीवात्मा च सम्बोध्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (चित्र) अद्भुतगुणकर्मस्वभाव, (वज्रहस्त) दण्डसामर्थ्ययुक्त शस्त्रास्त्रपाणे वा, (अद्रिवः) शत्रुभिर्न विदारयितुं शक्य (इन्द्र) परमैश्वर्य परमात्मन् जीवात्मन् वा ! (स्तवानः) स्तूयमानः (धृष्णुया) धर्षकबलेन। [धृष्णुशब्दात् तृतीयैकवचने ‘सुपां सुलुक्’ अ० ७।१।३९ इति विभक्तेर्याजादेशः।] (महः) महान् (सः) प्रसिद्धः (त्वम् नः) अस्मभ्यम् (रथ्यम्) शरीररथवाहकम् (गाम्) प्राणबलम् (अश्वम्) इन्द्रियबलं च (संकिर) प्रयच्छ, (न) यथा (जिग्युषे) संग्रामं जितवते योद्धृजनाय। [जि जये धातोर्लिटः क्वसौ चतुर्थ्येकवचने रूपम्।] (सत्रा) सदा (वाजम्) अन्नधनादिपुरस्कारं नृपत्यादिः संकिरति प्रयच्छति ॥२॥२ अत्रोपमालङ्कारः ॥२॥

भावार्थभाषाः -

अध्यात्मविजयार्थं बाह्यविजयार्थं चाप्यात्मोद्बोधनेन साकं परमात्मनोऽपि साहाय्यमपेक्ष्यते ॥२॥

टिप्पणी: १. ऋ० ६।४२।२। २. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं राजधर्मपक्षे व्याख्याय शिल्पविद्याविषये योजितवान्।